मुनि श्री विद्यासागरजी का आचार्य पद ग्रहण एवं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि
जैन न्यूज़ |
आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का सन् १९७२ में नसीराबाद में चातुर्मास चल रहा था। चातुर्मास के पूर्व जब वह अजमेर में विराजमान थे, तभी से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। चातुर्मास समाप्ति की ओर था। आचार्य महाराज शारीरिक रूप से काफी अस्वस्थ एवं क्षीण हो चुके थे। साइटिका का दर्द कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दर्द की भयंकर पीड़ा के कारण आचार्य महाराज चलने-फिरने में असमर्थ होते जा रहे थे।
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का विस्मयकारी निर्णय
ऐसी शारीरिक प्रतिकूलता की स्थिति में ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने सल्लेखना व्रत ग्रहण करने का निर्णय लिया। समाधि हेतु आचार्य पद का परित्याग तथा किसी अन्य आचार्य के सान्निध्य में जाने का आगम में विधान है। आचार्य महाराज के लिए इस भयंकर शारीरिक पीड़ा की स्थिति में किसी अन्य आचार्य के पास जाकर समाधि लेना भी संभव नहीं था। अत: उन्होंने स्वयं आचार्य पद का त्याग करके अपने सुयोग्य शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज को आचार्य पद पर आसीन करने का मानस बनाया। चातुर्मास निष्ठापन के दूसरे ही दिन आचार्य ज्ञानसागरजी ने संघ के समक्ष अपनी इस भावना को रखा। यह बात सुनकर संघ में सभी लोग सन्तुष्ट थे, सिर्फ मुनि श्री विद्यासागरजी को छोड़कर।
मुनि श्री विद्यासागरजी की अस्वीकृति
जब आचार्य महाराज ने मुनि विद्यासागरजी से आचार्यपद ग्रहण करने हेतु कहा, तब मुनिश्री बोले- "गुरुदेव! आप मुझे मुनि पद में ही साधना करने देंगे तो मुझ पर आपकी महती कृपा होगी।", मुनि विवेकसागरजी महाराज को आचार्य पद देगे तो अच्छा होगा (उस समय विवेकसागरजी महाराज वहाँ पर नहीं थे, उनका चातुर्मास कुचामन सिटी में था) अथवा क्षुल्लक श्री विजयसागरजी महाराज को मुनि दीक्षा देकर उन्हें आचार्यपद दे दीजिए।
पद त्याग नहीं तो समाधि कैसे...
जब मुनि श्री विद्यासागरजी ने मुनि पद पर रहते हुए अपनी साधना करने की भावना एवं आचार्य पद के प्रति अपनी निरीहता प्रकट कर दी तो आचार्य महाराज के सामने यह समस्या खड़ी हो गई कि अब मैं समाधि के लिए कहाँ जाऊँ...?
मुनि श्री विद्यासागर जी ने दी गुरुदक्षिणा
अनेक मूर्धन्य विद्वान ज्ञानार्जन एवं दर्शनार्थ उनके पास आते रहते थे। एक दिन आचार्य महाराज ने छगनलाल पाटनी, अजमेर वालों से कहा-"छगन जी! मेरी समाधि बिगड़ जाएगी।"
पाटनी जी - "महाराज! ऐसा क्यों ?"
ज्ञानसागरजी महाराज - "मुनि विद्यासागर आचार्य पद लेने से इंकार कर रहे है।"
पाटनी जी - "आचार्य पद उनको लेना पड़ेगा। वो इंकार नहीं कर सकते।"
महाराज - "वो तो साफ इनकार कर रहे है।"
तब फिर छगनलाल पाटनी, ताराचंद जी गंगवाल व माधोलाल जी गदिया बीरवाले जहाँ मुनि विद्यासागरजी महाराज नसिया में ऊपर सामायिक कर रहे थे, वहाँ पहुँच गये। छगनलालजी ने महाराज से निवेदन किया - "महाराज श्री! क्या गुरु की समाधि बिगाड़नी है जो कि आप आचार्य पद नहीं ले रहे हैं।"
मुनि विद्यासागरजी बोले - "मैं परिग्रह में नहीं फँसना चाहता, यह मेरे ऊपर बहुत भारी बोझ आ जाएगा।" उसी समय शान्तिलाल पाटनी, नसीराबाद वाले भी वहाँ पहुँचे और उन्होंने मुनि श्री विद्यासागर जी से कहा -"आपको यह पद स्वीकार करने में क्या तकलीफ है ?" तब मुनि श्री बोले -"मुझे विनाशीक पद नहीं चाहिये अविनाशी पद चाहिये |" छगनलाल पाटनी पुनः बोले - "आप गुरु को गुरु दक्षिणा में क्या दोगे ? क्योंकि आपके पास और कोई परिग्रह है ही नहीं, जो आप अपने गुरु को गुरु दक्षिणा में दे सको।"
महाराजश्री कुछ देर मौन रहकर बोले - "चलो, गुरु की समाधि तो बिगड़ने नहीं दूँगा, चाहे मेरे ऊपर कितनी भी विपत्तियाँ आवें उनको मैं सहर्ष सह लूगा।" फिर मुनिश्री विद्यासागर जी ने आचार्य महाराज के पास आकर निवेदन किया, "हे गुरुदेव! मेरे लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।" आचार्य महाराज ने उन्हें अपने कर्तव्य, गुरु सेवा और आगम की आज्ञा का स्मरण कराया और कहा कि - "गुरु दक्षिणा तो आपको देनी ही होगी।" इतना सुनते ही मुनिश्री अपने भावों को रोक न सके और एक बालक की भाँति विचलित हो उठे।
शिष्य पर गुरु संग्रह, अनुग्रह आदि के माध्यम से कई प्रकार के उपकार करते हैं, पर शिष्य का गुरु पर क्या उपकार है ? गुरु के अनुकूल वृत्ति करके गुरु पर शिष्य उपकार कर सकता है। ऐसा विचार कर मुनि श्री विद्यासागर गुरु चरणों में नतमस्तक हो गए। तब इच्छा नहीं होते हुए भी दस दिनों के लम्बे अंतराल के पश्चात् उनको अपने ही दीक्षा-शिक्षा गुरु महाराज को आचार्य पद ग्रहण करने की "मौन स्वीकृति देकर गुरु दक्षिणा समर्पित करनी ही पड़ी।" मौन स्वीकृति मिलने पर आचार्य महाराज अत्यन्त आह्वादित हुए और उन्होंने तत्काल ही मुहूर्त देखने का संकेत किया।
आचार्य पदारोहण मुहूर्त निर्धारण
उसी समय वहाँ अन्य संघस्थ एक क्षुल्लक पद्मसागरजी महाराज विराजमान थे, जो ज्योतिष के बड़े विद्वान थे। उनसे आचार्य पद का मुहूर्त निकलवाया। क्षुल्लक जी मुहूर्त देखकर बोले - "मैंने मेरी जिंदगी में ऐसा बढ़िया मुहूर्त नहीं देखा, जो आचार्य पद दीक्षा लेने वाले के लिए और देने वाले के लिए निकला हो। बहुत ही उत्तम मुहूर्त है।"
वह दिन था मगसिर कृष्ण दोज, वीर निर्वाण संवत् २४९९, विक्रम संवत् २०२९, दिनांक 22नवम्बर 1972, स्थान-श्री दिगम्बर जैन नसिया जी मंदिर, नसीराबाद, जिलाअजमेर, समय- प्रात: काल लगभग 9 बजे का।
आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का आचार्यपद से अंतिम प्रवचन
जैसे कोई श्रावक (पिता) जब तक अपनी योग्य कन्या का विवाह समय पर नहीं कर देता तब तक उसे चैन नहीं रहता। उसी प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी को पद देने से पूर्व तक चैन नहीं रहा, अत: उन्होंने उचित समय पर कन्यादान के समान अपने पद का दान किया और सब कुछ त्याग कर, समाधि जो मुख्य लक्ष्य था, उसकी ओर बढ़ गए। विशाल जनसमूह इस विस्मयकारी उत्सव को देखने के लिए उपस्थित था। आचार्य आसन पर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी विराजमान हैं। उनके पास ही मुनि आसन पर श्रमण विद्यासागरजी विराजमान हैं। उस दिन मुनि श्री विद्यासागर जी ने उपवास किया था।
आचार्य पद से आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने अंतिम उपदेश दिया, उन्होंने बहुत ही मार्मिक शब्दों में कहा - "यह नश्वर शरीर धीरे-धीरे गिरता जा रहा है और मैं अब इस पद का मोह छोड़ कर आत्म-कल्याण में पूर्णरूपेण लगना चाहता हूँ। जैनागम के अनुसार यह करना अत्यन्त आवश्यक और उचित भी है।"
आचार्य पद त्याग
आचार्य आसन पर किया प्रतिष्ठित
आचार्य पद प्राप्त करने के पश्चात् आचार्य विद्यासागरजी अपने पूर्व स्थान पर बैठने लगे, तो मुनि श्री ज्ञानसागरजी आचार्य आसन की ओर संकेत करते हुए बोले "विद्यासागरजी ! क्या आचार्य आसन रिक्त रहेगा ? मैं अपना पद परित्याग कर चुका हूँ, आप यथास्थान बैठिएगा।" इस प्रकार उन्होंने विद्यासागरजी को आचार्य आसन पर बैठाया और स्वयं विद्यासागरजी के स्थान पर जाकर बैठ गए।
....और वे गदगद हो गए
नवोदित आचार्य को बनाया अपना नियपिकाचार्य
आचार्य श्री विद्यासागर जी गंभीर मुद्रा में आचार्य आसन में विराजमान थे। उनके हृदय में तरंगित भावनाओं को अभिव्यक्त करना कल्पनातिरेक होगा। कुछ क्षण पश्चात् मुनि श्री ज्ञानसागर जी उठे और आचार्य श्री विद्यासागरजी को नमन करते हुए बोले- "हे आचार्यश्री! मैं आपके आचार्यत्व में सल्लेखना लेना चाहता हूँ मुझे समाधिमरण की अनुमति प्रदान कीजिए।" मैं आपको निर्यापकाचार्य के रूप में स्वीकार करता हूँ। आप मुझे अपना क्षपक बना लीजिए। मुनि श्री ज्ञानसागर जी द्वारा समाधिमरण की भावना व्यक्त करने पर उपस्थित विद्वानों, श्रेष्ठी, साधकों एवं श्रावकों की आँखें अश्रुपूरित हो उठीं। गुरु की वाणी सुनकर आचार्य श्री विद्यासागरजी विस्मित थे, उनका हृदय करुणा से विगलित हो उठा।
इस तरह 22 नवम्बर, 1972 को नसीराबाद स्थित सेठ जी की नसिया में प्रात:काल 9 बजे बड़ी शालीनता और विनम्रता से गुरु ने शिष्य को आचार्य पद प्रदान किया। 82 वर्षीय गुरुदेव आचार्य ज्ञानसागर ने 26 वर्षीय अपने सुयोग्य शिष्य को आचार्य पद एवं निर्यापकाचार्य का दायित्व सौंपा ॥
यह सब देखकर जन समूह स्तब्ध रह गया। उन्होंने अपने जीवन में ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था। नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी उस दिन से लेकर फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक अर्थात् चार माह तक मात्र दूध, गेहूँ और जल ये तीन चीजें ही आहार में ग्रहण करते थे।
कथनी-करनी में एकरूपता
कार्यक्रम समापन के पश्चात् सर सेठ भागचंद्र जी सोनी, अजमेर (राजस्थान) ने लौटते समय आचार्य ज्ञानसागरजी से अजमेर पधारने की प्रार्थना की, तो गुरुवर मुस्कराने लगे। उनकी भक्ति और भोलेपन पर। और बोले - "भागचंद्रजी ! आप किससे अनुरोध कर रहे हैं। मैं अब संघ में मुनि हूँ, आचार्य नहीं। आप आचार्य विद्यासागरजी से चर्चा कीजिए।"
मान मर्दन का अनूठा उदाहरण
आचार्य पदारोहण देखने के बाद छगनलाल पाटनी जब अजमेर आए, तब अजमेर नसिया में विराजमान आर्यिका श्री विशुद्धमति माता जी ने श्रावक श्रेष्ठी पाटनी जी से आचार्य पद त्याग का आँखों देखा प्रसंग सुना। तब माता जी बोलीं - "ऐसा रिकॉर्ड हजारों वर्षों में नहीं मिलता, जो अपने शिष्य को आचार्य बनाकर स्वयं शिष्य बन जाए। इतना मान मर्दन करना बहुत ही कठिन है, जो कि अपने शिष्य को नमस्कार करे। धन्य हैं महाराज ज्ञानसागरजी।"
दायित्व सौंपने की अनूठी कला
काल का क्रम कभी रुकता नहीं। वह निरंतर प्रवाहमान है। चतुर्दशी का पावन पर्व आया। पूरे संघ ने उपवास के साथ पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण के बाद आचार्य भक्ति करके नवोदित आचार्य की चरण वंदना की गई। यह दृश्य आश्चर्यकारी होने के साथ ही आनन्ददायक भी था। क्षपक मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने अपने स्थान से उठकर आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। दोनों हाथों से नियपिकाचार्य जी के दोनों चरण कमलों को तीन बार स्पर्श किया और नवोदित आचार्य के चरण स्पर्श से पवित्रित अपने दोनों हाथों को प्रत्येक बार अपने सिर पर लगाते रहे। फिर आचार्य गुरुदेव के सामने नीचे धरती पर बैठकर गवासन की मुद्रा में प्रायश्चित हेतु प्रार्थना की। संस्कृत भाषा में ही प्राय: गुरु शिष्य की बातें होती थीं। वह बोले - "भी गुरुदेव! अस्मिन् पक्षे मम अष्टाविंशति - मूलगुणेषु.मा प्रायश्चितं दत्त्वा शुद्धि कुरुकुरु।" इस प्रकार प्रायश्चित का निवेदन करते हुए उन्होंने निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी के दोनों हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिये, आचार्य विद्यासागर मौन मध्यस्थ बने रहे।
संघस्थ साधु मुनि श्री विवेकसागरजी महाराज कुचामन सिटी, राजस्थान से चातुर्मास वर्षायोग सम्पन्न करके विहार करते हुए अपने दीक्षा गुरु क्षपक श्री ज्ञानसागरजी एवं नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शनार्थ नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान पधारे थे। वह भी अपने स्थान से उठकर खड़े हुए और दोनों गुरुओं के श्रीचरणों में बैठकर विनयपूर्वक नमोऽस्तु निवेदन किया। उन्होंने भी अपने दीक्षा गुरु ज्ञानसागरजी का अनुकरण करते हुए पहले आचार्य विद्यासागरजी का चरणवंदन किया। पश्चात् स्वगुरु ज्ञानसागरजी के चरणों का वंदन किया। फिर हिन्दी भाषा में ही अपने गुरु से प्रायश्चित का निवेदन किया कि दीक्षा के बाद से अब तक जो भी अट्ठाईस मूलगुणों में दोष लगे हों, आप प्रायश्चित देकर मुझे शुद्ध करने की कृपा करें। तब क्षपक श्री ज्ञानसागरजी ने अपने ही द्वारा दीक्षित शिष्य मुनि विवेकसागरजी से कहा - "मैंने भी आपके सामने ही इन्हीं आचार्य महाराज से प्रायश्चित देने हेतु प्रार्थना की है। अब आप भी इन्हीं से निवेदन कीजिये।" तब श्री विवेकसागरजी महाराज ने नवोदित आचार्य महाराज से विनयपूर्वक निवेदन किया कि मुझे भी प्रायश्चित प्रदान करने की अनुकम्पा करें। ऐसा निवेदन करने पर आचार्य श्री ने पहले क्षपक श्री ज्ञानसागरजी को पाक्षिक प्रतिक्रमण के प्रायश्चित के रूप में 11 मालाएँ जपने का और श्री विवेकसागरजी को पाँच उपवास और 51 मालाएँ जपने का प्रायश्चित सबके सामने दिया। फिर संघ के ऐलक जी, क्षुल्लक जी आदि अन्य त्यागीगण ने भी पाक्षिक प्रायश्चित नवोदित आचार्य महाराज से ग्रहण किया। सबको सात सात मालाएँ जपने का प्रायश्चित मिला।
उपसंहार
गुरु जी के बारे में सुनाना औपचारिकता जैसा लगता है। गुरु के बारे में कहना है तो उसका कोई अंत है ही नहीं। वह अनंत को कहना है। उनके विषय में कैसे स्तुति मैं कर सकता हूँ परन्तु कहने से आस्था बलवती हो जाती है।
रात को चाँद अकेला नहीं रहता, तारामंडल उसके चारों ओर बिखरा हुआ रहता है। ताराओं में चंद्रमा को ताराचंद भी कहते हैं। किन्तु दिन में जब सूर्य को देखते हैं तो वह किसी से भी नहीं घिरा रहता है। सूर्य के सिवाय और कोई परिग्रह से, परिवार से रहित नजर नहीं आता। इसी तरह गुरुजी को मैं सूर्य की तरह मानता हूँ, पर आपको चंद्रमा पसंद है इसलिए गुरुजी को चंद्रमा कहता हूँ।
यदि सूर्य धरती को न तपाये अपने तेज से, तो वर्षा प्रारंभ नहीं होती। सूर्य नारायण की बदौलत हम सब आज खा-पी रहे हैं। सूर्य की तरह गुरुजी ने यदि हमको न तपाया होता, तो आज तक हम ठण्डे पड़ जाते। मन का काम नहीं करना। मन से काम करोगे, तो उनको और हमको भी समझ पाओगे।
आज के दिन एक उच्च साधक ने अपने जीवन की अंतिम दशा में अपनी यात्रा को पूर्ण करने के लिए पूर्व भूमिका बनाई। "मैं आज के इस दिवस को आचार्य पद त्याग के रूप में स्वीकार करता हूँ, ग्रहण के रूप में नहीं।" आचार्य पद कार्य करने की अपेक्षा से महत्वपूर्ण होता है, आसन पर बैठने की अपेक्षा से नहीं। "गुरु महाराज ने आज आचार्यपद त्याग किया था, यह महत्वपूर्ण है। पद ग्रहण करना महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि ग्रहण करना हमारा स्वभाव नहीं त्याग करना हमारा स्वभाव है।" आचार्य पदारोहण दिवस पर आचार्य श्री के प्रवचन - मेरा लक्ष्य तो मेरे गुरु का अनुकरण करना है। ये तो सब व्यवहार के पद हैं।
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